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#यादें.. भाग-२

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"हो हो हो... बस कर आता.  बस झाली की तुझी ही रोजचिच पिरपीर.. मला अजुन बूट चमकवायचेत." मैं मेरे एक हात में जूता पॉलिश करनेंवाला ब्रूश लेके उसे चेरी (जूते पॉलिश करनेवाला एक कलर) में डुबोते हुए दूसरी तरफ मेरे कान और दाहिने कंधे के बीच मे मोबाईल को फ़साँकर माँ से बात कर रहा था.. वो हररोज़ की तरह आज भी यही बोलते जा रहीं थी, " बेटा ट्रेनिंग से आने पर थोड़ा वक़्त खुद को दे दिया कर, फ़ुर्सत मिलतें ही अच्छे से नहाना। औऱ ज़्यादा ठंडा पानी हो तो नहाना मत। इन दिनों ठंड भी बहोत पड़ रहीं है। सिर्फ़ हात पैर धो लिया कर। ठंडे पानीं से नहाने पर तेरा सर दर्द करता हैं।" उसे ये तो पता था कि ठंडे पानी से मुझे क्या क्या होता हैं, लेकिन वो ये कैसे समझ पाती की यहां तकरीबन सात प्लाटूने याने की एक प्लाटून में पचास-पचपन बंदे गिने जाएं तो पूरे साढ़ेतीनसौ से चारसौ तक उसके बच्चें जैसे ही और बच्चे थे जो भी मेरी तरह पानीं कैसा भी, कितना भी हो लेकिन नहाना चाहतें थे। बात ये नहीं थी कि पानी नहीं था बल्कि इतने सारे रंगरूट ट्रेनिंग से आते ही सब के सब नहाने चल दिया करते थे और पूरे दिन की थकावट ज्यादा स...