ज़िंदगी की बहोत सारी यादें इस पहाड़ के इर्द गिर्द में समाई हुई है। हमारें जीवन के किसी दौर में ऐसी कई खास चीजें होती हैं जिसके साथ हम बहोत दिनों तक जुड़कर रहना पसंद करते हैं। वो चाहे हम चाहकर करते हो या न चाहते हुए भी। इस तस्वीर में जो पहाड़ दिखाई दे रहा है उसके पीछे वाली बाजू में मैंने कई दिन निकाले हैं। जो बंदा फ़ौज में भर्ती हो जाता हैं उसे ऐसे दिन जीना कोई बड़ी बात नही लेकिन हमारे सभी के ज़िंदगी में हर एक चीज़ पहली बार होती है। ये पहाड़ों में दिन निकालना मेरे लिए पहली बार था शायद इसलिए इसकी यादें मेरे खून में इतनी ज़्यादा समाई हुई हैं कि मैं चाहूं तो भी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता। बुनियादी प्रशिक्षण के आखरी दौर में फ़ायरिंग याने गोलीबारी का पाठ पढ़ना होता था। वो गोलीबारी का प्रशिक्षण चार हफ़्ते याने लगभग एक महीना चलता था। मैं सेना के कोअर में होने के कारण मुझे कुछ हल्के हल्के हथियारों का ही प्रशिक्षण मिलने वाला था। हल्के हल्के मतलब INSAS 5.56MM, CMG, LMG, SLR इस प्रकार के हथियार। इससे पहले जिंदगी में दीवाली के दौरान खिलौने में खेलने वाले पिस्तौल तक ही मेरी ज्ञान क्षमता वाकिफ़ थी।...
ज़िंदगी के रास्तें उतने ही आसान होते जितने वो सुननें में लगते हैं तो शायद एक सूखे पत्ते की तरह बहकर इसे जिया जा सकता था। काश ऐसा होता। लेकिन ऐसा नहीं है। क़ुछ रास्तों पर चलते वक़्त हमें सोच समझकर क़ुछ अलग रास्तों को भूल जाना पड़ता हैं, या उन्हें अनदेखा करना होता हैं। लेकिन ये कितना ज़रूरी होता हैं ये तब नहीं समझता जितना आगे जाके हम पीछे मुड़कर देखने के बाद समझ आता हैं। ख़ैर, कुछ न कुछ छूट ही जाता हैं ऐसा कहकर हमें ख़ुद को उस हालात में सँवरना पड़ता हैं लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं होता कि हमें उन रास्तों की परवाह नहीं हैं। बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं हैं.. क़ुछ लोग, कुछ घटनाएं, कुछ पल, क़ुछ चीज़ें हमें ऐसेही रास्तों की तरह ही छोड़नी पड़ती हैं लेकिन तब छोड़ते वक़्त या हम उससें अलग होते वक़्त इस बात का पता नहीं चलता कि वो हमारी ज़िंदगी में कितनी अहमियत रखते हैं। हर पल, हर चीज़ हर इंसान यहां आपको आपकी ज़िंदगी और ख़ुशनुमां बनाने के लिए हैं। उनको संभलना उनसे जुड़कर रहना सीखें। क्या पता कब कौन कहाँ साथ छोड़ दे। किसीने सच ही कहाँ हैं.. "उजालें अपनीं यादों के हमारें साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदग...
"हो हो हो... बस कर आता. बस झाली की तुझी ही रोजचिच पिरपीर.. मला अजुन बूट चमकवायचेत." मैं मेरे एक हात में जूता पॉलिश करनेंवाला ब्रूश लेके उसे चेरी (जूते पॉलिश करनेवाला एक कलर) में डुबोते हुए दूसरी तरफ मेरे कान और दाहिने कंधे के बीच मे मोबाईल को फ़साँकर माँ से बात कर रहा था.. वो हररोज़ की तरह आज भी यही बोलते जा रहीं थी, " बेटा ट्रेनिंग से आने पर थोड़ा वक़्त खुद को दे दिया कर, फ़ुर्सत मिलतें ही अच्छे से नहाना। औऱ ज़्यादा ठंडा पानी हो तो नहाना मत। इन दिनों ठंड भी बहोत पड़ रहीं है। सिर्फ़ हात पैर धो लिया कर। ठंडे पानीं से नहाने पर तेरा सर दर्द करता हैं।" उसे ये तो पता था कि ठंडे पानी से मुझे क्या क्या होता हैं, लेकिन वो ये कैसे समझ पाती की यहां तकरीबन सात प्लाटूने याने की एक प्लाटून में पचास-पचपन बंदे गिने जाएं तो पूरे साढ़ेतीनसौ से चारसौ तक उसके बच्चें जैसे ही और बच्चे थे जो भी मेरी तरह पानीं कैसा भी, कितना भी हो लेकिन नहाना चाहतें थे। बात ये नहीं थी कि पानी नहीं था बल्कि इतने सारे रंगरूट ट्रेनिंग से आते ही सब के सब नहाने चल दिया करते थे और पूरे दिन की थकावट ज्यादा स...
Comments
Post a Comment