"अंदर की बातें.."
ये ख़यालात क़बतक हैं ? कहाँतक हैं ? कहीं रुकेंगे भी या पूरी ज़िंदगीभर ऐसेही साथ रहेंगें मेरे अतीत तक पता नहीं। ज़िंदगी का वो भी एक दौर था जब कुछ आज जैसे ही ख़यालात जहन में आया करतें थे। तब लगता था कि अपनीं भी ज़िंदगी में ऐसा वक़्त आएगा जब आज की शिकायतें तब गुज़रे हुए कल की यादें लगेगीं। आज जो सपनें हैं वो कल हक़ीक़तें बन जाएगी। सच कहुँ तो वो भी दौर आया था ज़िंदगी में। एक सपनें की तरह नहीं बल्कि क़ुछ उसके जैसा ही लगता था। सब लोग थोड़ी-बहुत इज्ज़त देते थे, अपने काम से पैसे मिलते थे, जो ख़्वाब पैसों से पूरें किए जा सकतें हैं उसके लिए बॅकअप मिल गया था, और सबसे अहम् और महत्वपूर्ण बात ये थी कि, अब और ज़िंदगी में करना क्या हैं? ये सवाल दिल को चीरता नहीं था। इन दिनों की तरह..
हाँ.. इन दिनों मैं और कुछ सोचता हूँ भी या नहीं पता नहीं।
और उसके बाद एक दौर आया जो आज चल रहा हैं, ये कुछ पहले वाले जैसा ही हैं। बस कुछ बातें ज्यादा समझने लगीं है। हो सकता हैं कि ये हरदीन दिल को सुकून पहुंचाए बिना सोने के लिए ले जानेवाला दौर जल्द ही ख़त्म हो या फिर नहीं भी। अच्छा होनें की आशा करनें में क्या बुराई है?..
बहोत ज्यादा तकलीफ़ होती हैं तब जब हम ख़ुद ही ख़ुद से क्या चाहतें हैं पता नहीं होता.. और अगर सोचने की कोशिश भी करें तो वो मिलता नहीं जो हम चाहतें है..
जब हमारें अपनें जिन्हें हम अपनें दिल के पास जगह देते हैं वो दूर चले जातें हैं तब इस तकलीफ़ में और ही गहराई हो जातीं है.. वो दूर जानेंवाले शायद अपनीं ग़लती से भी जातें होंगें लेकिन वो हमारे इतनें क़रीब तभी होतें हैं जब वो हमें और हम उन्हें आपस की गलतियों और ख़ूबियों के साथ पता होतें हैं। तो उनका और हमारा भी ये फ़र्ज बनता हैं कि अगर कोई एक कि ग़लती हो तो उसे संभलकर उसके साथ कैसे बर्ताव करें.. खैर, ख़ुद के अलावा अगर हम किसीको बदल पातें तो शायद अबतक हमनें पूरी दुनियाँ को परिवार बना लिया होता।
मेरे सफर का ये कौनसा मोड़ हैं पता नहीं.. जेब में पैसे नहीं हैं, पैसे जुटाने के लिए जो कुछ जुगाड़ किए थे वो कोरोना के बंद के चलते पूरे बर्बाद हो चुके हैं। दिल करता हैं कि किसी अच्छे विश्वविद्यालय में मास्टर की पढ़ाई करूँ.. लेकिन इसके लिए भी जेब परवाना नहीं देता। घरवालों के सामने हाथ बढ़ाएं तो बढ़ाएं किस मुँह से?
दिल में कुछ बातें हैं जो किसीसे कहनी हैं लेकिन कहें किस्से? जिन्हें अपना समझता था उन्हीं के सामने अब प्रश्नवाचक चिन्ह खड़े होने लगें हैं.. कभी कभी ये बड़ी मुश्किल से लगता हैं कि काश वो अब साथ में होती..
अगर होती तो कम से कम इस अकेलेपन को खुलकर बोलनें के लिए जगह तो होती.. लेकिन नहीं।
इसके साथ ही अब इस बात का भी एहसास होने लगा हैं कि इस सफर में कोई भी साथी अंत तक नहीं होता दोस्त.. अकेले को ही लगें रहना पड़ता हैं।
~ माऊली
३० एप्रिल २०२०
०७:३० pm
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