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Showing posts from May, 2020

#यादें.. भाग-३

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ज़िंदगी की बहोत सारी यादें इस पहाड़ के इर्द गिर्द में समाई हुई है। हमारें जीवन के किसी दौर में ऐसी कई खास चीजें होती हैं जिसके साथ हम बहोत दिनों तक जुड़कर रहना पसंद करते हैं। वो चाहे हम चाहकर करते हो या न चाहते हुए भी। इस तस्वीर में जो पहाड़ दिखाई दे रहा है उसके पीछे वाली बाजू में मैंने कई दिन निकाले हैं। जो बंदा फ़ौज में भर्ती हो जाता हैं उसे ऐसे दिन जीना कोई बड़ी बात नही लेकिन हमारे सभी के ज़िंदगी में हर एक चीज़ पहली बार होती है। ये पहाड़ों में दिन निकालना मेरे लिए पहली बार था शायद इसलिए इसकी यादें मेरे खून में इतनी ज़्यादा समाई हुई हैं कि मैं चाहूं तो भी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता।  बुनियादी प्रशिक्षण के आखरी दौर में फ़ायरिंग याने गोलीबारी का पाठ पढ़ना होता था। वो गोलीबारी का प्रशिक्षण चार हफ़्ते याने लगभग एक महीना चलता था। मैं सेना के कोअर में होने के कारण मुझे कुछ हल्के हल्के हथियारों का ही प्रशिक्षण मिलने वाला था। हल्के हल्के मतलब INSAS 5.56MM, CMG, LMG, SLR इस प्रकार के हथियार। इससे पहले जिंदगी में दीवाली के दौरान खिलौने में खेलने वाले पिस्तौल तक ही मेरी ज्ञान क्षमता वाकिफ़ थी।...

#आठवणींचे मनोरे..

वेळ काळाइतकं कुणीच कठोर नसतं. आजकाल ही गोष्ट जरा जास्तच तीव्रतेनं कळायला लागलीय. तुला जाऊन  कालपरवा २ वर्ष उलटून गेली. अजूनही काळजावरच्या सुरकुत्या तुझा चेहरा आठवला की सर्रssकन् निघून जातात. आणि मी पुन्हा त्याच विचारांत गुरफटून जातो की असं काय आहे तुझ्या आठवणींत? ज्यामुळं माझ्यातला एकदम ढालाढिला माणूस पूर्ण उत्साहात येऊन तुझ्यातच विरून जातो. विचार थांबत नसतात माणसाचे, वावटळीत उडालेल्या पाचोळ्यागत ते कुठवरही धावतच राहतात म्हणून मी सतत आवरायचा प्रयत्न करतो तुझ्या बाबतीत येणाऱ्या विचारांना. पण होतं एकदम उलटंच. मी करत असलेला थांबवायचा केविलवाणा प्रयत्न गुरफटून जातो पुन्हा येणाऱ्या आठवांच्या वादळात. अशा वेळी कसं जगावं माणसानं? नको नको म्हणून दाबून धरायचा प्रयत्न केल्यावर एकदम उसळीच येते त्यांना.  तुझ्या जाण्यानं मला एक गोष्ट अजून नकळत उमगून गेली. रात्रीवर प्रेम करावं माणसानं. हीच ती. शब्द, आवाज, दृश्य, वेळ, निसर्ग, कल्पना, हे सगळं बोलू लागतात आपल्यासोबत रात्रींत. आणि एकंदरीतच आयुष्य म्हणजे इंद्रधनू अन तसलं औघड असं काही नसून मोकळ्या हवेत तुझ्या हातात हात घालून बसावं बस एवढीच अपेक्षा...

#यादें.. भाग-१

मेरा जॉइनिंग लेटर मेरे हाथ में था। घर में मेरे अलावा सबकुछ खुश नज़र आ रहें थे। ज़्यादा नहीं लेकिन थोड़ी-बहुत खुशी तो मुझें भी हुई थी। सरकारी नोकरी जो लग गई थी। इसके अलावा इस बात की खुशी थी कि आज के बाद "कल करना क्या है?" ये सवाल आना बंद होनेवाला था। 5 सितंबर 2018 को सुबह 08:00 बजे वहाँ रिपोर्ट करना था। मैं थोड़ाबहुत मायूस था और धीरे-धीरे ये मायूसी अब डर में बदलने लगीं थी। और इस डर के साथ साथ और एक चीज़ साफ दिखाई दे रही थी वो ये की, मैं आर्मी जॉइन नहीं करना चाहता। मेरा मन नहीं करता था कि मैं इस नोकरी पर जाऊँ। मैं कुछ और चाहतां था वो क्या था ये भी पता नहीं था लेकिन मैं खुद को एक ऐसी जगह पर नहीं रखना चाहता था जहाँ अपने मन की सुन कर काम करने के  बजाएं सिर्फ बताएं गये काम करने पड़े। उन्हीं दिनों किताबों से इश्क़ होने लगा था। और शायद उसी वज़ह से मुझे ऐसा भी लगने लगा था कि मैं ये नोकरी जॉइन कर लूं तो मेरी आज़ादी ख़त्म हो जाएगी, मुझे वहां किताबें पढ़ने के लियें शायद वक़्त मिलेगा भी या नहीं?, मेरे जैसी चाहत रखनेवाले दोस्त मिलेंगें या नहीं?, और मुझे मेरे फॅमिली के साथ रहने को नहीं मिलेगा। बहोत सोच...

#पुरानी बातें..

आजकल लगता हैं मुझें  खो जाऊं कहीं मैं.. हाँ सच में मैं खोना चाहता हूँ खुद को.. बस वो खोनें की जग़ह जब सोचता हूँ तब तब मुझें दिखती हैं,  वो तेरी खुली ज़ुल्फ़ों की लंबी सी घनघनाहट..  बहते झरनों की तरह मुझें पाग़ल कर देने वाली वो तेरी मुस्कुराहट.. मैं जब देखुँ उन्हें तो शर्म से लाल होनेवाली गालों की वो आफ़त.. मुझें मिलनें के लिए तरसने वालें बाहों की आपस में होनेवाली तड़प.. ये सब चीज़ें दिखती हैं मुझें ख़ुद को खोनें के लिए, पर बेचारा दिल फ़िर भी नहीं मानता.. वो चाहतां हैं कि मैं खो जाऊँ, मैं खो जाऊँ क़िताब के पन्नों में मैं खो जाऊँ पसीनें के एक एक बूँद में मैं खो जाऊँ लगन के हर एक पल में मैं खो जाऊँ उन बुलंदियों में जो मुझें दिमाग़ की नहीं दिल की सुन नें को कहें.. हां मैं भी अब यहीं चाहतां हूँ, हो कहीं भी लेक़िन  ख़ुद को खोना चाहतां हूँ.. (तारीख़ याद नहीं लेक़िन बेसिक ट्रेनिंग के दौरान स्पोर्ट barack के पीछे बैठकर शाम के 7-8 बजे के क़रीब लिखा हैं।) ~ माऊली      ❤️