#यादें.. भाग-१
मेरा जॉइनिंग लेटर मेरे हाथ में था। घर में मेरे अलावा सबकुछ खुश नज़र आ रहें थे। ज़्यादा नहीं लेकिन थोड़ी-बहुत खुशी तो मुझें भी हुई थी। सरकारी नोकरी जो लग गई थी। इसके अलावा इस बात की खुशी थी कि आज के बाद "कल करना क्या है?" ये सवाल आना बंद होनेवाला था। 5 सितंबर 2018 को सुबह 08:00 बजे वहाँ रिपोर्ट करना था। मैं थोड़ाबहुत मायूस था और धीरे-धीरे ये मायूसी अब डर में बदलने लगीं थी। और इस डर के साथ साथ और एक चीज़ साफ दिखाई दे रही थी वो ये की, मैं आर्मी जॉइन नहीं करना चाहता। मेरा मन नहीं करता था कि मैं इस नोकरी पर जाऊँ। मैं कुछ और चाहतां था वो क्या था ये भी पता नहीं था लेकिन मैं खुद को एक ऐसी जगह पर नहीं रखना चाहता था जहाँ अपने मन की सुन कर काम करने के बजाएं सिर्फ बताएं गये काम करने पड़े।
उन्हीं दिनों किताबों से इश्क़ होने लगा था। और शायद उसी वज़ह से मुझे ऐसा भी लगने लगा था कि मैं ये नोकरी जॉइन कर लूं तो मेरी आज़ादी ख़त्म हो जाएगी, मुझे वहां किताबें पढ़ने के लियें शायद वक़्त मिलेगा भी या नहीं?, मेरे जैसी चाहत रखनेवाले दोस्त मिलेंगें या नहीं?, और मुझे मेरे फॅमिली के साथ रहने को नहीं मिलेगा।
बहोत सोचने - समझने के बाद मैंने एकदिन घरवालों से कह दिया कि, देखो आप बोल रहें थे इसीलिए मैंने ये कुछ न कुछ हासिल किया लेकिन ये मुझें करना नहीं है। मैं औऱ पढ़ूँगा या दूसरी नोकरी ढूंढ लूँगा लेकिन ये करूँगा नही ये बात पक्की है। मेरे अलावा सब याने आई-पापा, और दादा ये सब नाराज़ हो गए थे। इन सब में मेरे पापा ज्यादा ही नाराज़ नज़र आते थे क्योंकि, मेरा जॉइनिंग लेटर वो हरदीन हाथ में लेकर बहोत खुश होकर बोलते थे कि मैंने जिसके लिए 20-25 बार कोशिश की फिर भी हासिल नहीं कर सका वो इसने एक ही प्रयास में किया है लेकिन अब इसका क्या फायदा? इसी बात को बार बार सोचते हुए वो नाराज़ हो जाते थे।
वक़्त बीतता चला गया और आख़िरी समय वो दिन आ ही गया जिस दिन मुझें वहां जाना था। 4 सितंबर को रात को निकलता तो 5 की सुबह वहां पहुंचता जहां मुझे होना चाहिए था, लेकिन मैंने ये ठान लिया था कि मैं ये नोकरी जॉइन नहीं करूँगा। इसी वजह से मैं 4 की रात को नहीं गया। गांववाले दोस्त, घरवाले और रिश्तेदार सब बोल रहे थे कि मुझे जाना चाहिए। लेकिन मैं बिल्कुल नहीं जाना चाहता था। इसके साथ ही कुछ सूझ नहीं रहा था की क्या करूँ? क्या करना सही होगा? काफी रोना आता था लेकिन ये सब बातें मैं किसी को बता भी नहीं सकता था। इक किताब हाथ में लेके छत पर जाकर अकेले अकेले ही फुसुर फुसुर रोता था। सच कहूँ तो उन दिनों जया की बहोत याद आती थी, सोचता था और किसीको नहीं लेकिन ये जो कुछ हो रहा है वो बताने के लिए वो एक जगह थी लेकिन अब वो भी मेरे पास नहीं थी। आज भी सच्चे दिल से कहूं तो वो दौर मेरी आज तक कि ज़िंदगी का सबसे खतरनाक था। सबसे ज़्यादा।
5 तारीख़ को तीन बार मुझें आर्मी ऑफिस से फोन आ चुका था और मैनें उन्हें मेरे दादाजी की मौत हुई हैं ये कारण बताके उल्लु बनाया था। कौन किसको उल्लु बना रहा था ये तो आनेवाला समय ही बतानेवाला था। ऐसेही कुछ मायूसी की चंद लम्हों के साथ 5 तारीख़ भी निकल गयी। घर में सब खाना खाके सो गए थे। लेकिन मैं सो नहीं पा रहा था। आज़तक की मेरी जिंदगीं में वो एक ही ऐसी रात थी जिसमें मैं रातभर करवटें बदलता रहा, सोया नहीं। बहोत कुछ अज़ीब से ख़याल आ रहे थे मन में। और उसी दरम्यान मुझें ऐसा भी लगने लगा कि, देख बेटा तुझे ये सब नहीं करना है तो मत कर लेक़िन ज़िंदगी एक मौका दे रहीं हैं तो उसे आजमाले। तुझें जो मिल रहा है वो बहुतोंको नसीब नहीं हुआ है। किसी भी चीज़ को उसे ख़ुद ना करके जज करनें से अच्छा है उसका अनुभव करो और फिर उसके बारे में अपने ख़यालात रखों। उस चीज को आपको आपके ज़िंदगी में साथ लेकर जाना हैं या नहीं ये समझना आज से ज़्यादा तब आसान होगा जब आप खुद उसे महसूस करने वाली घड़ी से गुज़र चुके होंगे। मेरा नतीज़ा आने के बाद जॉइन करनें तक मेरे पास पूरा एक महीना था, लेकिन उस समय में मैंने क़ुछ फ़ालतू चीजों के बारे में सोचने और रोने के अलावा क़ुछ नहीं किया था। और कल याने मेरी जॉइनिंग की तारीख 5 सितंबर निकल जाने के बाद मुझें इस बातों का पता चला था । और मैं खुश था कि, सिर्फ खुद को ताकने के अलावा दिल को समझ देने वाली बातों के ज़वाब अब मेरे अंदर से ही आने लगे थे।
पर अब क्या फ़र्क पड़ता, अब तो समय निकल चुका था। क्यूँकि 5 सितंबर को सुबह 8 बजे मुझे पुणे में होना था और अब 6 सितंबर की सुबह होने लगी थी और मैं अपने चारपाई पर लेटकर इन बातों के बारे में सोच रहा था। पर एक मौका था मेरे पास, कल आर्मी ऑफिस से फोन आने पर मैंने दादाजी के गुजर जाने के बारे में बताया था। तो अगर मैं वहाँ जाता हूँ और मुझे अंदर लेते हैं तो मेरे पास एक अच्छा बहाना था जिसे मैं मसाला लगाकर थोड़ी एक्टिंग करकर बता सकता था और अगर अंदर लेते ही नहीं तो फिर अलग बात थी। चलो देखतें हैं ये सोचकर मैंने ये पक्की कर दी कि चलो एक बार आजमाके देखतें है!
सुबह के 4 बज रहे थे, सब नींद में थे और मैं उठकर मेरी बैग भरने की तैयारी में लगा हुआ था। मेरी इस हलचल की वज़ह से आई और उसके बाद सबकी नींद खुल गई थी। और सब पूछ रहे थे कि तू कर क्या रहा हैं? मैं निकल रहा हूँ पुणे के लिए ये मेरा जवाब सुनने के बाद सब के सब हैरान थे क्योंकि कल रात तक ये सब मुझे करना नहीं ऐसा कहकर रोनेवाला आदमी आज खुशी से उसी तरफ जाने के लिए निकल रहा था। वो खुश हो गए।
आख़िरकार वो भी वक़्त आ गया जब आई मेरी आरती उतारनें लगीं और मैं निकलने के लिए एकदम तैयार था। पीठ पर टंगी हुई बैग में 2-3 रोटियाँ,जोइनिंग लेटर के साथ कुछ ज़रूरी दस्तावेज, 2 ड्रेस और एक डायरी लेकर मैं और मेरा बड़ा भाई एक बाइक पर और साथ ही आई-पापा दूसरी बाइक पर निकल पड़े। वो मुझे छोड़ने के लिए नज़दीक के एक गांव तक आ रहे थे जहाँपर पुणे जानेवाली बस रुकती थी। बाइक पर बैठकर निकलते समय हमारे गांव को पीछे छोड़ने के पहले ही दादा ने एक बात कहीं थी, अगर जाना नहीं है तो जाने का नाटक भी मत कर। मत जा, तुझे कोई जोर जबरदस्ती नहीं कर रहा। और अगर सच में तूने जाने के लिए सोचा है तो फिर अच्छी बात हैं लेकिन तू ट्रेनिंग के बीच में से ही अगर घर वापिस आएगा तो तेरी भी और हमारी भी बहोत नाक कटेगी। सोच ले। मैंने तभी तय किया था कि उधर मर जाऊंगा लेकिन ट्रेनिंग नहीं ही रही हैं इसी बहाने घर नही आऊंगा।
हम बाइक से उस गांव में पहुंचे जहां से मेरी बस आनेवाली थी। कुछ तस्वीरें खिंचवाकर हम बस स्थानक पर आ पहुंचे थे। हम सब एक दूसरे के चेहरे की तरफ देख रहे थे। आई पापा दादा और मैं। आई पापा की ज़िंदगी का ये और एक हसीन पल था क्योंकि उनके दो ही बेटे थे और दोनों अब अपने अपने पाँव पर खड़े थे। इतने में बस आ गयी और मैं निकल पड़ा था इक नई ज़िंदगी की ओर जो मेरा आई के नाम आँखों के साथ विदाई लेते वक़्त स्वागत भी कर रहीं थी।
~ माऊली
❤️
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