Posts

Showing posts from 2020

आशावाद..

जगणं छान आहे म्हणत म्हणत जगण्याला अश्व लागायची वेळ आपल्यावर येऊन ठेपते हे बऱ्याचदा जगण्याचा महोत्सव करावा याची अक्कल आलेल्या वयातही कळत नाही. त्यावेळेस करावं काय आणि काय करायला पाहिजे हे काय करत होतो याकडे पाहून सुचतं. बऱ्याचदा जे करत होतो तेच पुन्हा नव्याने करण्याची गरज आहे किंवा नवीन करतांना जे करत होतो ते न करता नव्याने नवीन करायचं आहे हे सुचून जातं. कुणाचीच वेळ गेलेली नसते. त्या त्या वेळेचं गांभीर्य ओळखून त्या त्या क्षणाला करावयाच्या गोष्टींना प्राधान्य देता आलं पाहिजे. आजूबाजूला घडणाऱ्या गोष्टींमधून आपण फुसकी प्रेरणा घेत असतो पण वैध स्वप्नांइतकं स्वतःला पेटवत ठेवण्याचं सामर्थ्य अजूनतरी मला कशात सापडलं नाही. ते बारकुले असोत की मोठे पण खरंच स्वप्न बघावेत माणसानं. मसणवट्यात जायची वेळ आली तरी छाती फुटसतोवर मेहनत करण्याचं बळ देणारा आपल्यात आशावाद जिवंत असला की स्वतःच्या कर्तेपणावर शंका येत नाही. तो  कर्तेपणा फक्त तसा जिवंत असून उपयोग नाही त्याला चौफेर हालचालींची जोड असली म्हणजे वेल मांडवाला गेल्याशिवाय राहात नाही.  रडत सगळेच असतात आपापल्या कमीपणाकडं बघून, झिजून जाताना उत्साहान...

सोचो, खुश रहो..

ज़िंदगी के रास्तें उतने ही आसान होते जितने वो सुननें में लगते हैं तो शायद एक सूखे पत्ते की तरह बहकर इसे जिया जा सकता था। काश ऐसा होता। लेकिन ऐसा नहीं है। क़ुछ रास्तों पर चलते वक़्त हमें सोच समझकर क़ुछ अलग रास्तों को भूल जाना पड़ता हैं, या उन्हें अनदेखा करना होता हैं। लेकिन ये कितना ज़रूरी होता हैं ये तब नहीं समझता जितना आगे जाके हम पीछे मुड़कर देखने के बाद समझ आता हैं। ख़ैर, कुछ न कुछ छूट ही जाता हैं ऐसा कहकर हमें ख़ुद को उस हालात में सँवरना पड़ता हैं लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं होता कि हमें उन रास्तों की परवाह नहीं हैं।  बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं हैं.. क़ुछ लोग, कुछ घटनाएं, कुछ पल, क़ुछ चीज़ें हमें ऐसेही रास्तों की तरह ही छोड़नी पड़ती हैं लेकिन तब छोड़ते वक़्त या हम उससें अलग होते वक़्त इस बात का पता नहीं चलता कि वो हमारी ज़िंदगी में कितनी अहमियत रखते हैं। हर पल, हर चीज़ हर इंसान यहां आपको आपकी ज़िंदगी और ख़ुशनुमां बनाने के लिए हैं। उनको संभलना उनसे जुड़कर रहना सीखें। क्या पता कब कौन कहाँ साथ छोड़ दे।  किसीने सच ही कहाँ हैं.. "उजालें अपनीं यादों के हमारें साथ रहने दो,  न जाने किस गली में ज़िंदग...

#यादें.. भाग-३

Image
ज़िंदगी की बहोत सारी यादें इस पहाड़ के इर्द गिर्द में समाई हुई है। हमारें जीवन के किसी दौर में ऐसी कई खास चीजें होती हैं जिसके साथ हम बहोत दिनों तक जुड़कर रहना पसंद करते हैं। वो चाहे हम चाहकर करते हो या न चाहते हुए भी। इस तस्वीर में जो पहाड़ दिखाई दे रहा है उसके पीछे वाली बाजू में मैंने कई दिन निकाले हैं। जो बंदा फ़ौज में भर्ती हो जाता हैं उसे ऐसे दिन जीना कोई बड़ी बात नही लेकिन हमारे सभी के ज़िंदगी में हर एक चीज़ पहली बार होती है। ये पहाड़ों में दिन निकालना मेरे लिए पहली बार था शायद इसलिए इसकी यादें मेरे खून में इतनी ज़्यादा समाई हुई हैं कि मैं चाहूं तो भी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता।  बुनियादी प्रशिक्षण के आखरी दौर में फ़ायरिंग याने गोलीबारी का पाठ पढ़ना होता था। वो गोलीबारी का प्रशिक्षण चार हफ़्ते याने लगभग एक महीना चलता था। मैं सेना के कोअर में होने के कारण मुझे कुछ हल्के हल्के हथियारों का ही प्रशिक्षण मिलने वाला था। हल्के हल्के मतलब INSAS 5.56MM, CMG, LMG, SLR इस प्रकार के हथियार। इससे पहले जिंदगी में दीवाली के दौरान खिलौने में खेलने वाले पिस्तौल तक ही मेरी ज्ञान क्षमता वाकिफ़ थी।...

#आठवणींचे मनोरे..

वेळ काळाइतकं कुणीच कठोर नसतं. आजकाल ही गोष्ट जरा जास्तच तीव्रतेनं कळायला लागलीय. तुला जाऊन  कालपरवा २ वर्ष उलटून गेली. अजूनही काळजावरच्या सुरकुत्या तुझा चेहरा आठवला की सर्रssकन् निघून जातात. आणि मी पुन्हा त्याच विचारांत गुरफटून जातो की असं काय आहे तुझ्या आठवणींत? ज्यामुळं माझ्यातला एकदम ढालाढिला माणूस पूर्ण उत्साहात येऊन तुझ्यातच विरून जातो. विचार थांबत नसतात माणसाचे, वावटळीत उडालेल्या पाचोळ्यागत ते कुठवरही धावतच राहतात म्हणून मी सतत आवरायचा प्रयत्न करतो तुझ्या बाबतीत येणाऱ्या विचारांना. पण होतं एकदम उलटंच. मी करत असलेला थांबवायचा केविलवाणा प्रयत्न गुरफटून जातो पुन्हा येणाऱ्या आठवांच्या वादळात. अशा वेळी कसं जगावं माणसानं? नको नको म्हणून दाबून धरायचा प्रयत्न केल्यावर एकदम उसळीच येते त्यांना.  तुझ्या जाण्यानं मला एक गोष्ट अजून नकळत उमगून गेली. रात्रीवर प्रेम करावं माणसानं. हीच ती. शब्द, आवाज, दृश्य, वेळ, निसर्ग, कल्पना, हे सगळं बोलू लागतात आपल्यासोबत रात्रींत. आणि एकंदरीतच आयुष्य म्हणजे इंद्रधनू अन तसलं औघड असं काही नसून मोकळ्या हवेत तुझ्या हातात हात घालून बसावं बस एवढीच अपेक्षा...

#यादें.. भाग-१

मेरा जॉइनिंग लेटर मेरे हाथ में था। घर में मेरे अलावा सबकुछ खुश नज़र आ रहें थे। ज़्यादा नहीं लेकिन थोड़ी-बहुत खुशी तो मुझें भी हुई थी। सरकारी नोकरी जो लग गई थी। इसके अलावा इस बात की खुशी थी कि आज के बाद "कल करना क्या है?" ये सवाल आना बंद होनेवाला था। 5 सितंबर 2018 को सुबह 08:00 बजे वहाँ रिपोर्ट करना था। मैं थोड़ाबहुत मायूस था और धीरे-धीरे ये मायूसी अब डर में बदलने लगीं थी। और इस डर के साथ साथ और एक चीज़ साफ दिखाई दे रही थी वो ये की, मैं आर्मी जॉइन नहीं करना चाहता। मेरा मन नहीं करता था कि मैं इस नोकरी पर जाऊँ। मैं कुछ और चाहतां था वो क्या था ये भी पता नहीं था लेकिन मैं खुद को एक ऐसी जगह पर नहीं रखना चाहता था जहाँ अपने मन की सुन कर काम करने के  बजाएं सिर्फ बताएं गये काम करने पड़े। उन्हीं दिनों किताबों से इश्क़ होने लगा था। और शायद उसी वज़ह से मुझे ऐसा भी लगने लगा था कि मैं ये नोकरी जॉइन कर लूं तो मेरी आज़ादी ख़त्म हो जाएगी, मुझे वहां किताबें पढ़ने के लियें शायद वक़्त मिलेगा भी या नहीं?, मेरे जैसी चाहत रखनेवाले दोस्त मिलेंगें या नहीं?, और मुझे मेरे फॅमिली के साथ रहने को नहीं मिलेगा। बहोत सोच...

#पुरानी बातें..

आजकल लगता हैं मुझें  खो जाऊं कहीं मैं.. हाँ सच में मैं खोना चाहता हूँ खुद को.. बस वो खोनें की जग़ह जब सोचता हूँ तब तब मुझें दिखती हैं,  वो तेरी खुली ज़ुल्फ़ों की लंबी सी घनघनाहट..  बहते झरनों की तरह मुझें पाग़ल कर देने वाली वो तेरी मुस्कुराहट.. मैं जब देखुँ उन्हें तो शर्म से लाल होनेवाली गालों की वो आफ़त.. मुझें मिलनें के लिए तरसने वालें बाहों की आपस में होनेवाली तड़प.. ये सब चीज़ें दिखती हैं मुझें ख़ुद को खोनें के लिए, पर बेचारा दिल फ़िर भी नहीं मानता.. वो चाहतां हैं कि मैं खो जाऊँ, मैं खो जाऊँ क़िताब के पन्नों में मैं खो जाऊँ पसीनें के एक एक बूँद में मैं खो जाऊँ लगन के हर एक पल में मैं खो जाऊँ उन बुलंदियों में जो मुझें दिमाग़ की नहीं दिल की सुन नें को कहें.. हां मैं भी अब यहीं चाहतां हूँ, हो कहीं भी लेक़िन  ख़ुद को खोना चाहतां हूँ.. (तारीख़ याद नहीं लेक़िन बेसिक ट्रेनिंग के दौरान स्पोर्ट barack के पीछे बैठकर शाम के 7-8 बजे के क़रीब लिखा हैं।) ~ माऊली      ❤️

"अंदर की बातें.."

ये ख़यालात क़बतक हैं ? कहाँतक हैं ? कहीं रुकेंगे भी या पूरी ज़िंदगीभर ऐसेही साथ रहेंगें मेरे अतीत तक पता नहीं। ज़िंदगी का वो भी एक दौर था जब कुछ आज जैसे ही ख़यालात जहन में आया करतें थे। तब लगता था कि अपनीं भी ज़िंदगी में ऐसा वक़्त आएगा जब आज की शिकायतें तब गुज़रे हुए कल की यादें लगेगीं। आज जो सपनें हैं वो कल हक़ीक़तें बन जाएगी। सच कहुँ तो वो भी दौर आया था ज़िंदगी में। एक सपनें की तरह नहीं बल्कि क़ुछ उसके जैसा ही लगता था। सब लोग थोड़ी-बहुत इज्ज़त देते थे, अपने काम से पैसे मिलते थे, जो ख़्वाब पैसों से पूरें किए जा सकतें हैं उसके लिए बॅकअप मिल गया था, और सबसे अहम् और महत्वपूर्ण बात ये थी कि, अब और ज़िंदगी में करना क्या हैं? ये सवाल दिल को चीरता नहीं था। इन दिनों की तरह.. हाँ.. इन दिनों मैं और कुछ सोचता हूँ भी या नहीं पता नहीं। और उसके बाद एक दौर आया जो आज चल रहा हैं, ये कुछ पहले वाले जैसा ही हैं। बस कुछ बातें ज्यादा समझने लगीं है। हो सकता हैं कि ये हरदीन दिल को सुकून पहुंचाए बिना सोने के लिए ले जानेवाला दौर जल्द ही ख़त्म हो या फिर नहीं भी। अच्छा होनें की आशा करनें में क्या बुराई है?.. बहोत ज्यादा तकलीफ़ हो...

आठवणींचे मनोरे

"हो.. मी सांगितलं ना तुला, आले फक्त पाचच मिनिटात.." ती वेणीत गुंतलेले केस मोकळे करत करत त्याला आश्वासन देत होती.. त्यालाही माहीत होतं ती आता त्याला पाच मिनिटांचा दुरावा देऊन कुठं चालली आहे ते. करण हे फक्त आजच्यापुरतंच मर्यादित नव्हतं त्यांच्या जोडीच्या सहवासाला आता जवळ-जवळ दोन वर्ष होत आली होती. म्हणजे परस्परांच्या सवयी बऱ्यापैकी माहीत होत्या एकमेकांना.  रोज रात्री ती या वेळेला त्याच्याकडून हक्काने पाच मिनिटं मागून घ्यायची आणि अंघोळ करून यायची. हो ती रोज रात्री झोपण्यापूर्वी अंघोळ करायची.  त्यानं या वेळेला अंघोळ करण्यामागचं कारण जाणून घेण्यासाठी तिला बऱ्याचदा लाडीगोडी लाऊन झालेलं पण तिने नव्हतं त्याला कळू दिलं.. पण तोही बिचारा हार मानणाऱ्यांपैकी नव्हता. त्याला हे जाणून घेण्यापायी का अजून काय माहिती नाही पण रोज निदा फ़ाज़लींचा एक शेर या वेळी नक्की आठवायचा..  "हर इक आदमी में होतें हैं दसबीस आदमी, जब भी मिलोगे हर इक से मिलना.." आणि पुन्हा तो तिला अंघोळीसोबतच बऱ्याच गोष्टी बोलत्या करण्यासाठी चवताळून उठायचा. पण पुरुषांच्या अशा वागण्याला हॅलो देईल ती बाईची जात कसली?.. म्हणज...

#यादें.. भाग-२

Image
"हो हो हो... बस कर आता.  बस झाली की तुझी ही रोजचिच पिरपीर.. मला अजुन बूट चमकवायचेत." मैं मेरे एक हात में जूता पॉलिश करनेंवाला ब्रूश लेके उसे चेरी (जूते पॉलिश करनेवाला एक कलर) में डुबोते हुए दूसरी तरफ मेरे कान और दाहिने कंधे के बीच मे मोबाईल को फ़साँकर माँ से बात कर रहा था.. वो हररोज़ की तरह आज भी यही बोलते जा रहीं थी, " बेटा ट्रेनिंग से आने पर थोड़ा वक़्त खुद को दे दिया कर, फ़ुर्सत मिलतें ही अच्छे से नहाना। औऱ ज़्यादा ठंडा पानी हो तो नहाना मत। इन दिनों ठंड भी बहोत पड़ रहीं है। सिर्फ़ हात पैर धो लिया कर। ठंडे पानीं से नहाने पर तेरा सर दर्द करता हैं।" उसे ये तो पता था कि ठंडे पानी से मुझे क्या क्या होता हैं, लेकिन वो ये कैसे समझ पाती की यहां तकरीबन सात प्लाटूने याने की एक प्लाटून में पचास-पचपन बंदे गिने जाएं तो पूरे साढ़ेतीनसौ से चारसौ तक उसके बच्चें जैसे ही और बच्चे थे जो भी मेरी तरह पानीं कैसा भी, कितना भी हो लेकिन नहाना चाहतें थे। बात ये नहीं थी कि पानी नहीं था बल्कि इतने सारे रंगरूट ट्रेनिंग से आते ही सब के सब नहाने चल दिया करते थे और पूरे दिन की थकावट ज्यादा स...